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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद

आत्मीयता का माधुर्य और आनंद

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4187
आईएसबीएन :81-89309-18-8

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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद



पर वह भ्रांति नहीं होनी चाहिए कि हमें जो वस्तु परमप्रिय लगती है, उस पर हमारा अधिकार हो गया और यदि उसे सुविधापूर्वक नहीं प्राप्त कर सकते, तो अनधिकार चेष्टाओं द्वारा प्राप्त करें। प्रेम, प्रेम की इच्छा तो करता है, पर उसकी रति आत्मा है, कोई और माध्यम या साधन नहीं। आत्म-जगत् अपने-आप में इतना परिपूर्ण है कि उसका रमण करने पर हमें वह सुख अपने-आप मिलने लगता है, जिसकी हम प्रेमास्पद से अपेक्षा करते हैं। इसलिए पदार्थों के प्रेम को क्षणभंगुर और ईश्वरीय प्रेम को दिव्य और शाश्वत मान लिया गया है।

वह निःस्वार्थ होता है और उसके लिए होता है, जो न कहीं दिखाई देता है और न सुनाई। मालूम नहीं पड़ता कि अपनी आवाज और भावनाएँ उस तक पहुँचती भी हैं अथवा नहीं। पर हमारी हर कातर पुकार के साथ अंतःकरण में एक संतोष और सांत्वना की अंतर्वृष्टि होती है। वह बताती है कि तुम्हारा विश्वास और तुम्हारी प्रार्थना निरर्थक नहीं जा रही। मूल में बैठी हुई आत्म-प्रतिभा स्वयं विकसित होकर मार्गदर्शन कर रही है। विकास की यह प्रक्रिया ईश्वर प्रेमी की अनेक प्रसुप्त प्रतिभाओं और बौद्धिक क्षमताओं का जागरण ही करती है। मेलों में उड़ाए जाने वाले गुब्बारों के नीचे एक प्रकार का ऐसा पदार्थ जलाया जाता है, जिससे गैस बनती है और वह गैस ही उस गुब्बारे को उड़ाकर दूर क्षितिज के पार तक पहुँचा देती है।

आत्मीयता की अंत:करण में उठने वाली लपटें ऐसी ही हैं, जो शरीर की, मन की, बुद्धि की और आत्म-चेतना की शक्तियों का उद्दीपन कर उन्हें ऊपर उठाती रहती हैं और विकास की इस हलचलपूर्ण अवस्था में भी वह सुख और स्वर्गीय सौंदर्य की रसानुभूति करता रहता है, भले ही माध्यम कुछ न हो। भले ही वह विकास के साथ ही रमण कर रहा हो, उसे अपना प्रेमी परमेश्वर दिखाई भी न देता, हो तो भी प्रकृति के अंतराल से उसकी दिव्य-वाणी और उसका दिव्य आश्वासन भरा प्रकाश फूटता ही रहता है।

निष्काम प्रेम में वह शक्ति है, जो प्रवाह बनकर फूटती है और न केवल दो-चार व्यक्तियों में वरन् हजारों-लाखों के जीवन में आनंद का स्रोत बनकर उमड़ पड़ती है, वह हजारों कलुषित अंतःकरणों को धोकर उन्हें निर्मल बना देती है। तुलसीदास जी ने भगवान से प्रेम किया था, वह प्रेम जब बहुजन हिताय के रूप में फूटा तो न केवल परमात्मा के प्रति भक्ति, श्रद्धा और विश्वास की लहरें फूटीं वरन् सेवा सहिष्णुता, दांपत्य प्रेम, पारिवारिक मर्यादा, संतोष, दया, करुणा, उदारता आदि ऊर्ध्वमुखी चेतनाओं की लहरें समाज में फूट निकलीं।

तुलसीदास जी नहीं रहे, पर उनकी आत्मा आज भी हजारों लोगों को अपनी आत्मा से मिलाकर ईश्वरीय आत्मा में परिणत करती है। ईश्वर के प्रति प्रेम का अर्थ स्वार्थ या संकीर्णता नहीं, वरन् अपने आपको उस मूल बिंदु के साथ जोड़ देना है, जो अपने आपको जन-जन के जीवन में विकीर्ण करता रहता है। तात्पर्य यह है जब हम ईश्वर से प्रेम करते हैं, तब संसार में व्यक्त चेतना के प्रत्येक कण से प्रेम करते हैं, ईश्वर की यही परिभाषा भी तो है।

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    अनुक्रम

  1. सघन आत्मीयता : संसार की सर्वोपरि शक्ति
  2. प्रेम संसार का सर्वोपरि आकर्षण
  3. आत्मीयता की शक्ति
  4. पशु पक्षी और पौधों तक में सच्ची आत्मीयता का विकास
  5. आत्मीयता का परिष्कार पेड़-पौधों से भी प्यार
  6. आत्मीयता का विस्तार, आत्म-जागृति की साधना
  7. साधना के सूत्र
  8. आत्मीयता की अभिवृद्धि से ही माधुर्य एवं आनंद की वृद्धि
  9. ईश-प्रेम से परिपूर्ण और मधुर कुछ नहीं

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